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Friday, January 28, 2011

कृषि का बदलता अर्थशास्त्र


कृषि सदा से ही भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ रही है । भारत की कुल आबादी का 74 फीसदी हिस्सा गावों में रहता है। जाहिर सी बात है यह ज्यादा से ज्यादा लोगों को रोजगार प्रदान करती है । बदलते दौर में कृषि ने भी अपना स्वरुप बदला है , हम पारंपरिक खेती को बहुत पीछे छोड़ इंडस्ट्रीयल फार्मिंग को अपना रहे हैं । नवीनतम कृषि प्रणाली में खाद्यान्न उत्पादन के बदले उद्योगों के लिए कच्चे माल का उत्पादन किया जा रहा है। यही कारण है कि ऐसे कृषि उत्पादों के दर में बेतहासा वृद्धि हुई है । उदाहरण के  लिए अमेरिका में गेहूँ के समर्थन मूल्य में तब बेतहासा वृद्धि हुई थी ,जब गेहूँ का इस्तेमाल एथेनाल बनाने में किया जाने लगा । इन सबके बावजूद भारतीय कृषकों की स्थिति जस की तस है । इंडस्ट्रीयल फार्मिंग में लागत इतना ज्यादा है कि बिना मल्टीनेशनल कंपनियों के मदद से खेती नही की जा सकती है , और ये कंपनियां सारा  लाभ समेटकर चल देती हैं । भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है , इस बढ़ती जनसंख्या को ज्यादा से ज्यादा खाद्यान्न उपलब्ध कराना होगा । इस बढ़ती हुई आबादी को भोजन उपलब्ध कराने के लिए हमें प्रतिवर्ष  50-60 लाख टन खाद्यान्न उत्पादन की जरुरत होगी । आजादी के समय हम खाद्यान्नों के लिए आत्मनिर्भर नहीं थे , लेकिन अस्सी के दशक में खाद्यान्नों के मामलें में हम आत्मनिर्भर हो चुके थे। रचनात्मक नियोजन , कृषि अनुसंधान तथा विकासोन्मुख नीतियों के चलते हमारा देश खाद्यान्न के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बन सका है । 1950 में खाद्यान्न उत्पादन 50 मिलियन टन रहा, जो अब बढ़कर 233.64 मिलियन टन के रिकार्ड उत्पादन पर पहुँच चुका है। खाद्यान्न उत्पादन के मामले में निश्चय ही हमने आशातीत सफलता पाई है लेकिन राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र के योगदान में तेजी से कमी आई है ,वहीं दूसरी ओर कृषि पर जनसंख्या की  निर्भरता में मामूली गिरावट देखी गई है। कृषि पर निर्भर जनसंख्या सन् 1950 में 67.5 फासदी थी ,जो सन् 1990 में धटकर 64.9 फीसदी हो गई और वर्तमान में यह 64 फीसदी है ।
                             ारतीय कृषि शुरु से ही सार्वजनिक निवेश औऱ सरकारी निवेश की मार झेल रही है। कृषि के क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश लगातार धटा है । सन् 60-61 के दौरान कृषि में सार्वजनिक निवेश की हिस्सेदारी 35 प्रतिशत थी जो सन् 2000 आते आते धटकर 23 प्रतिशत हो गई, जबकि इस समय व्यक्तिगत निवेश 66 प्रतिशत से बढ़कर 76.4 प्रतिशत हो गया था । यदि सरकारी निवेश का बात करें तो अस्सी के दशक के शुरुआती वर्षों में शुद्ध घरेलू उत्पाद का 9 प्रतिशत अंश कृषि में पूँजी के तौर पर निवेशित कर दिया गया था । नब्बे के दशक दौरान यह घटकर मात्र 6 प्रतिशत रह गया है । अगर सकल घरेलू उत्पाद (जी.डी.पी) को देखें तो इसमें भी लगातार गिरावट आई है । स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जी.डी.पी में कृषि की हिस्सेदारी लगभग 70 फीसदी थी , जो नब्बे के दशक में 2 फीसदी के आसपास पहुँच गई। सन् 2008 में जी.डी.पी में कृषि की भागीदारी 16.54 फीसदी रही ,सन 2009-09 में यह गिरकर 15.7 फीसदी पर आ गया और अभी यह 14.6 पर टिका हुआ है। इस प्रकार के आकड़े जी.डी.पी में लगातार गिरावट को दिखा रहे है। सरकारी उदासीनता ऐसे शिखर पर  आ पहुँचा है , जहां कृषि उत्पादों के कीमत बढ़ने पर राष्ट्रपति का बयान आता है कि इससे कृषकों की स्थिति में सुधार हुआ है । सरकारी प्रयास की चर्चा करें तो कृषि के समुचित विकास के लिए हमारे यहां राष्ट्रीय कृषि नीति है , जिसका उद्देश्य कृषि के क्षेत्र में प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत का विकास करना है जो पूरे क्षेत्र में फैली होगी और कृषि उत्पादों के निर्यात के लाभ को अधिक बनाएगी। डब्ल्यू.टी.ओ  समझौते के बाद विश्व बाजारों तक हमारी पहुँच बढ़ने की संभावनाएँ हैं । भारत के कुल निर्यात का 15-20 फीसदी हिस्सा कृषि उत्पाद हैं । लेकिन विश्व निर्यात में हमारी भागीदारी 1 प्रतिशत से भी कम है। कृषि के लिए प्रौद्योगिकी ,सिंचाई के उन्नत साधन जुटाने के बजाय सरकारें खाद्यान्नों का नयूनतम समर्थन मूल्य तय कर अपनी जिम्मेदारियों से किनारा कर लेती हैं।  खाद्यान्न उत्पादन में हमने आशातीत सफलता पाई है लेकिन कृषकों की माली हालत में निरंतर गिरावट देखा जा रहा है। अर्जुन सेनगुप्ता रिपोर्ट कृषक तथा कृषि पर आधारित लोगों की बदहाली का दास्तां बयां कर रहा है। इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत की कुल आबादी का 77 प्रतिशत जनसंख्या प्रतिदिन 20 रूपये से भी कम में जीवन यापन कर करा है । इन लोगों की बदहाली के पीछे प्रमुख कारणों में सरकारी उदासीनता औऱ राज्यों का अनियमित विकास है। 

                                              आजादी के समय में भारतीय कृषि पूर्णरूपेण वर्षा पर निर्भर था । खाद्यान्नों की निम्न उत्पादकता के कारण भारत को अमेरिका से अनाज आयात करना पड़ता था । स्वतंत्रता प्राप्ति के समय जमींदारों का वर्चस्व था ,ये खेती में कोई सुधार किए बिना , मनमाने ढ़ंग से किसानों से लगान की वसूली किया करते थे। कृषि में समानता लाने के लिए भू- सुधारों की आवश्यकता हुई, जिसका उद्देश्य कृषि में स्वामित्व परिवर्तन करना था। स्वतंत्रता के एक वर्ष बाद ही देश में जमींदारी प्रथा उन्मूलन तथा वास्तविक कृषकों को ही भू स्वामी बनाने जैसे कदम उठाये गए। समानता को बढ़ाने के लिए भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारण की नीति बनाई गई।  इसके तहत एक व्यक्ति के लिए 18 एकड़ भूमि को अधिकतम सीमा माना गया। इस नीति का उद्देश्य लोगों में भू-स्वामित्व के संकेंद्रण को कम करना था। आजादी के बाद बनी पहली पंचवर्षीय योजना में कृषि को प्राथमिकता दी गई।  वर्ष 1949 में पंडित नेहरू की दूरदर्शिता का परिणाम अधिक अन्न उपजाओ कार्यक्रम था जिसने अकाल झेलते किसानों पर मरहम लगाने का काम किया। गांधी जी के अनुयायी और सामाजिक कार्यकर्ता आचार्य विनोबा भावे ने 1951 में भू-दान आंदोलन चलाया , जिसका उद्देश्य जमीनदारों से भूमि मांगकर भूमिहीनों में बांटना था।  भारतीय कृषि का सबसे क्रांतिकारी काल 1966-84 का काल माना जाता है । इस काल में एक नए युग का सूत्रपात हुआ। यह था अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता । कृषि वैज्ञानिक , कृषक औऱ नीति निर्माता एक मंच पर आए और हरित क्रांति का सूत्रपात हुआ। भारत में हरित क्रांति लाने में सबसे बड़ी भूमिका अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक डा. नार्मन.ई.बारलाँग की रही। बारलाग के कारण ही  कृषि उत्पादन में 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई। सन् 1963 में भारत सरकार ने राष्ट्रीय बीज निगम की स्थापना की । सन् 1966 में लोकसभा में बीज अधिनियम पारित हुआ। तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने जब जय जवान जय किसान का नारा दिया तब कई लोग नौकरी छोड़कर खेती करने लगे। कृषि अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए सन् 1966 में गोविंद वल्लभ पंत कृषि और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय तथा सन् 1970 में राजेंद्र कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना की गई। वर्ष 1972 में सरकार भू सुधार के लिए बटाईदारी अधिनियम लाई, जो अबतक का सबसे विवादास्पद विधेयक रहा है और अब तक अमल में नहीं लाया जा सका है। अस्सी के दशक के मध्य से धीरे धीरे कृषि की स्थिति खराब होने लगी। सन् 1990 आते आते राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय आर्थक परिदृश्य में तेजी से परिवर्तन आया । बढ़ते राजकोषीय घाटे पर खाद्यान्न रिआयत का मामला भारी पड़ने लगा। परिस्थितिवश सरकार खाद्यान्न रिआयतों से अपना पैर पीछे खींचने लगी । धीरे-धीरे कृषि सुधार की ओऱ अग्रसर हुआ। 1990 के बाद की सरकारी नीतियां कृषकों के हित में नहीं रही है । सेज ( विशेष आर्थिक क्षेत्र ) की स्थापना ऐसे ही समय में हुई है। सेज के माध्यम से सरकार बड़े पैमाने पर कृषि योग्य भूमि को गैर कृषि उद्देश्य के लिए इस्तेमाल कर रही है। बड़े कारपोरेट घरानों द्वारा पूंजी निवेश का द्वार खोलने के लिए 2005 में कान्ट्रैक्ट खेती का कानून बनाया जा चुका है। मौजूदा बजट में रोजगार के नाम पर 41 हजार करोड़ रूपये डाले गए हैं तो वहीं कारपोरेट सेक्टर को कर माफी और अन्य तरीकों से 76 हजार करोड़ रूपये का लाभ पहुँचाया जा रहा है। इस युग की सबसे बड़ी उपलब्धि सन् 2005 में ही बना रोजगार गारंटी अधिनियम है,जो कृषि मजदूरों को 100 दिन की रोजगार मुहैया कराता है। वर्तमान में मनरेगा से 1.79 करोड़ लोग लाभान्वित हो रहे हैं।

                              इन सभी वैज्ञानिक उपलब्धियों तथा अनेक सरकारी नीतियों के बावजूद कृषि से लोगों का पलायन और किसान आत्महत्याएँ कर रहे हैं। इन सबके पीछे कुछ बेहद ठोस कारण हैं ,जिनपर गौर करने की आवश्यकता है। देश में अपनी आवाज उठाने के लिए श्रमिक एवं पदाधिकारियों का संगठन तो है लेकिन किसानों का कोई संगठन नहीं है । सरकार अनाजों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है लेकिन समय पर खरीद नहीं होती। राष्ट्रीयकृत बैंक घर बनाने एवं कार खरीदने लिए 8 से 9 प्रतिशत ब्याज दर पर ऋण देते हैं लेकिन ट्रैक्टर खरीदने के लिए 11 प्रतिशत की दर पर ऋण मिलता है। भारत के किसानों को अन्य देशों के मुकाबले बहुत कम सब्सिडी दी जाती है। हालांकि वर्ष 2008 में प्राकृतिक आपदा को ध्यान में रखते हुए सरकार ऋण माफी योजना चलायी थी , जिसके तहत 71 हजार करोड़ रुपये का ऋण माफ किया गया । वर्ष 2009-10 में  भी देश के 626 जिलों में से 271 जिलों को सूखा प्रभावित जिला घोषित किया जा चुका है । दरअसल कृषि को एक मुकम्मल राष्ट्रीय नीति की दरकार है , जिससे वाकई कृषकों को चेहरे पर मुस्कान वापस लौट सके।    

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