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Thursday, September 23, 2010



क्या माओवादी वाकई गांधियन विद गन्स हैं?

हाल ही में माओवादियों को अरुंधती राय ने गांधियन विद गन्स कहा था। बड़ा बवाल मचा इस देश में । देश के गृहमंत्री तक को यह बात नागवार गुजरी। गांधी से माओवादियों का जुड़ाव कैसे संभव हो सकता है, कहां ये हिंसा में विश्वास ऱखने वाले और कहां अहिंसा के पुजारी गांधी। गांधी गीता में विश्वास रखते हैं , गीता को माता सदृश मानते हैं, और युद्ध को अनुचित भी । गीता में युद्ध को अनुचित नहीं बताया गया है । यह दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि गीता को माता मानने के बावजूद, गांधी जी गीता को आत्मसाथ नहीं कर सके। क्योंकि गीता में कहीं भी गांधी की अहिंसा युद्ध संभावना नहीं दिखती। इससे बचने का उपाय गांधी जी ढ़ूढ़तें हैं । वह कहते हैं , महाभारत का जो युद्ध है वह सिर्फ एक रुपक है , कभी हुआ ही नहीं । यह मनुष्य के भीतर अच्छाई औऱ बुराई की लड़ाई है। यह जो कुरुक्षेत्र है ,यह कोई बाहर का युद्ध नहीं , तुम्हारे मन के भीतर का युद्ध क्षेत्र है । गांधी की नजर में तो कृष्ण से ज्यादा उपयुक्त लगते हैं । अर्जुन में मन में युद्ध के समय बड़ी अहिंसा का उदय हुआ है। कृष्ण की बात गांधी जी के पकड़ में नहीं आ सकती , क्योकिं वे अर्जुन को लड़ने के लिए कह रहे हैं । और इसके पीछे जो तर्क कृष्ण देते हैं, वह ऐसा अनूठा है कि इससे पहले कभी नहीं दिया गया । उसे कोई परम अहिंसक ही दे सकता है। कृष्ण तर्क देते हैं , जब तक तुम समझते हो कि कोई मर सकता है ,तब तक तुम आत्मवादी नहीं हो । अगर तुम सोचते हो कि मार दोगे ,तो तुम भ्रांति में हो, बड़े अज्ञान में हो । क्योंकि मरने और मारने की अवधारणा भौतिकवादी धारणा है। जो तुम्हारे भीतर है ,वह न कभी मरा है, न कभी मर सकता है । जो जानता है ,उसके लिये कोई मरता नहीं है । मरना और मारना एक नाटक है और यह जारी रहना चाहिए।
                                   आज जो सत्ता के लिये तिकड़मबाजी चल रही  है, उसके नींव की चर्चा आध्यात्म में की गई है। पीछे मुड़कर देखता हूँ तो सत्ता के लिये की गई राजनीति दिखाई पड़ती है, जिसमें काल एवं परिस्थिति के मुताबिक न्याय में बदलाव दिखाई देता है। ऐसी ही एक धटना महाभारत में है। दुर्योधन युधिष्ठिर से प्रश्न करते हैं कि हस्तिनापुर के ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते गद्दी पर मेरे पिताजी का अधिकार था ,चूँकि वे अंधे थे इसलिए इस गद्दी पर पांडु को बिठाया गया। प्रथम अधिकार पिताजी का होने के नाते अब इसपर मेरा अधिकार बनता है। युधिष्ठिर इसका उत्तर देते हैं चाहे जिस कारण से भी मेरे पिताजी राजा बने तो अब इस गद्दी पर मेरा अधिकार है । गांधी किसके साथ होते ,यह उनपर ही छोड़ना पड़ेगा। काल और परिस्थिति को थोड़े समय के लिए गौण कर दें ,तो न्याय दुर्योधन के पक्ष में जान पड़ता है । ठीक ऐसी ही कुछ परिस्थिति गांधी जी के लिए बंटवारे के समय बनी थी। गांधी जी जिन्ना के राष्ट्रपति बनाकर विभाजन टालना चाहते थे । लेकिन गांधी जी यहाँ फेल हो गए । गांधी के विद्रोह में समझौता दिखाई देता है, इसमें कहीं आत्मवादिता नहीं है । थोड़ा आगे बढ़ते हैं, और स्वर्ग की सत्ता पर विचार करते हैं । स्वर्ग की सत्ता और कलयुगी सत्ता में बहुत कम का  फर्क दिखायी पड़ता है, दोनो को हासिल करने की राजनीति लगभग एक जैसी ही है। स्वर्ग की सत्ता इस बात को पुख्ता करती है कि ,सत्ता भोग विलास का साधन होता है । आप उस समय के सोमरस और अप्सरा की तुलना आज के शराब और शवाब से कर सकते हैं। उस समय भी अप्सरा के रुप में स्त्रियाँ कमोडिटी थी और आज भी अपने आधुनिक प्रतिरुप में कमोडिटी ही हैं । सत्ता को चुनौती देने वालों को आज बहुत से अलग अलग नाम दे दिये गए जैसे अलगाववादी, माओवादी, समाजवादी आदि आदि । ये निरंतर सत्ता को उसी प्रकार चुनौती दे रहे हैं जैसे इंद्र की सत्ता को असुर चुनौती देते थे । कुछ समय के लिए असुर सत्ता पा भी लेते थे । लेकिन देवता लोग सृष्टि के आकाओँ (ब्रम्हा, विष्णु औऱ महेश) की मदद और छल और प्रपंच की मदद से फिर से सत्ता को हासिल कर लेते थे। मुझे तो देवताओं के बजाय ,असुर ज्यादा बहादुर और गैर राजनीतिक दिखाई पड़ते हैं। आज के संदर्भ में माओवादियों को राक्षस समझा जाता है । माओवादी ही क्यों मार्क्स और समाजवाद के सारी संतानों को इसी श्रेणी में रखा जाता है । पूंजीवादी शक्तियां सृष्टि के आकाओं की भूमिका निभा रही हैं । अफगानिस्तान और इराक में स्वर्ग के तर्ज़ पर ही सत्ता का हस्तांतरण हुआ। अपने ही देश में सबसे ज्यादा वर्षों तक शासन ऐसी ही शक्तियों का रहा है।
                                पहले से ही असुर विद्रोह या अव्यवस्था फैलाने का प्रतीक समझे जाते हैं । अव्यवस्था को समझने के लिए वयवस्था को समझाना पड़ेगा। शार्ट में वयवस्था का संदर्भ यहां सिस्टम से है। सत्ता को चुनौती देने वाला राक्षस ही तो है, यकीनन उसे मार देना चाहिए , यह आम जनता की दृष्टिकोण होती है। यह जनता आज भी है कल भी थे । ये हमेशा अपने आप को सत्ता के अनूकूल रखने प्रयास करती हैं । बायोलाँजी में एक टर्म है एडेप्टेशन, (अनूकूलन), जैसे ऊंट रेगिस्तान के लिए अनूकूलित होता है,  वैसे ही आम जनता अनूकुल और विपरीत दोनो परिस्थितियों में अपने को अनूकूलित कर लेती हैं। और साथ ही इतिहास की एक खासियत होती है ,वह कड़वी सच्चाई से परे होता है । शायद इसलिए इंद्ग प्रासंगिक है, राम प्रासंगिक वहीं असुर और रावण अप्रासंगिक । रावण से शिव ने वर मांगा था ,तो रावण उन्हें अपने साथ ही रहने के लिए राजी किया, लेकिन देवता असुर के साथ कैसे रह सकते हैं, रावण के वर्षों के तप ,नि:स्वार्थपरता  को खारिज कर यहां भी देवताओं ने छल की राजनीति कर रावण को मात दे दी। सारे ग्रंथो में शायद गीता ही एक ऐसा ग्रंथ है ,जहां विद्रोही को उपयुक्त स्थान मिला है । देश की स्थिति से आप सभी वाकिफ़ हैं कहने की जरुरत नहीं कि यदि माओवादी राक्षस हैं तो देश को चलाने वाले इंद्र क्या हैं ? जनता पूरे इतिहास में उदासीन रही है। समय समय पर इन्हें बड़ी मेहनत के बाद अनूकूल ट्रांजिशन स्टेट से प्रतिकूल ट्रांजिशन स्टेट में लाया जाता है । समय समय पर कृष्ण जैसे लोगों ने व्यवस्था के विरुद्द परिस्थिति के निर्माण का काम किया है। कृष्ण के इस प्रतिरुप को कभी सम्मान नहीं मिलेगा । कृष्ण की इसी भूमिका को आगे बढ़ाया है, मार्क्स ने ,लेलिन ने, लोहिया ने , अरुंधती ने। इनकी भूमिका तो दिखायी देगी ,लेकिन ये उपेक्षित रहे हैं और उपेक्षित रहेंगे। राम के अपेक्षा कृष्ण भी इस देश में उपेक्षित ही हैं।
               

3 comments:

Ram Dwivedi said...

यह द्वंद्व तो निरंतर है। आपने एक नए कोण से इस पर विचार किया है और पाठकों को कुछ नया सोचने को मिलेगा।

Unknown said...

परिस्थियों का मंथन समय समय पर होता रहा हैं । लेकिन किसी एक पक्ष को सही ठहरा देना वो भी तब जब नीति स्पष्ट ना हो तर्क संगत नही है । लेख वैचारिक है । परन्तु स्पष्ट नही ।

Ashwani Singh said...

a good combination of mythological novels in today's context ... good attempt ... liked it ...