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Tuesday, March 3, 2009

संस्कृति और पूँजी बनाम देव - डी


हाल ही में अनुराग कश्यप द्वारा निर्देशित फिल्म देव डी बाक्स आफिस पर रिलीज हुई है । यह शरतचंद्र के उपन्यास " देवदास " का आधुनिक संस्करण है । अनुराग ने यह दिखाने का भरशक प्रयास किया है कि आज के युवक और युवती के लिए देवदास और पारो का लुक कैसा होना चाहिए । पूँजी का वर्चस्व किस प्रकार से हमारे समाज को प्रभावित कर रहा है ,इसे भी रुपहले परदे पर दिखाने का प्रयास किया गया है । न्याय और सत्ता पर पूँजी किस प्रकार से हावी है , यह इस फिल्म के अंत में बड़े ही रोचक रूप में प्रस्तुत किया गया है । देव डी में देवदास का अंत ,एक बड़ा प्रश्न छोड़ जाता है कि क्या गरीबों के लिए इस समाज में न्याय है अथवा नहीं ? वस्तुतः इस फिल्म का अंतिम भाग इक्कीसवीं सदी में पूँजीवाद और समाजवाद की स्थिति को बेहद करीब से उजागर कर रहा है । 21 वीं सदी में भी भारत एक समाजवादी राष्ट्र ही है अथवा पूँजीवाद ने इसका कायापलट कर दिया है । पूँजी और सत्ता के घालमेल को यह अच्छी तरह प्रदर्शित करता है । समाज में सुरक्षा (पूँजीपति ज्यादा सुरक्षित है या गरीब ) को लेकर जो आम आदमी का विचार है , उसे भी इस फिल्म ने परदे पर लाने का काम किया है ।
भारतीय संस्कृति पर आधुनिक संस्कृति पर आधुनिक संस्कृति हावी है , यह भी अनुराग ने बखूबी दिखाया है । आज का आधुनिक देवदास विदेशी टोपी पहले हुए है , वह लैपटॉप साथ लेकर चलता है और वह किसी छम्मक छल्लो से चैटिंग करने में मशगूल है । देव की पारो वापस घर आई है और वह अपने आने की सूचना महाद्वीपों दूर अपने देव को देती है । 21 वीं सदी के देवदास को यह पूछना आवश्यक नहीं लगता है कि वह उससे प्रेम करती है या नही ? क्या वह उसे छू सकता है ? पारो उसे अपनी ही नँगी जेपीइजी फोटो भेजती है तो यह आधुनिक देवदास मुस्कुराते हुए उत्तर देता है – पारो मैं आ रहा हूँ । फिल्म का यह सीन सही मायने में आज के मेट्रो शहरों की संस्कृति को उजागर कर रहा है । पोर्नोग्राफी जिसे अब तक इस देश में बहुत हद तक वर्जित माना जाता रहा है , अब यह युवाओं के लिए कोई वर्जना नहीं ,वरन् मनोरंजक सामग्री बन गई है । एम एम एस इसका जीता – जागता उदाहरण है । मतलब देव की पारो यहाँ पोर्नोग्राफी का सहारा लेकर संदेश का संप्रेषण कर रही है । फिल्म का यह दृश्य देश की नैतिक तथा सेक्स संबंधी विचारधारा पर एक बड़ा प्रश्न खड़ा कर रही है । अगर अनुराग की माने तो " यह फिल्म 20 वीं सदी के उपन्यास देवदास का काल्पनिक एवं अर्थपूर्ण एडपटेशन है ।" जाहिर है अनुराग कश्यप ने आज के युवाओं की जो बदलती स्थिति है , उसे बेहद संजीदगी से पेश किया है । साल दो साल पूर्व सलमान खान के द्वारा फुटपाथ पर सो रहे लोगों को कार से कुचल दिया गया था । जिसमें कई को गँवानी पड़ी थी । इस घटना का सीधा संबंध देव डी के अंतिम सीन से दिखाई पड़ता है । यह बात वैसे ही है जैसे कि रीयल लाइफ से रील स्टोरी । उस समय देव सल्लू मियॉ थे और पारो ऐश्वर्या । दोनों देवदासों का एक ही हश्र होता है । पारो से जुदा होने के दर्द में इनके वाहनों से बेकसूर गरीब मारे जाते हैं , और थोड़ी सी फजीहत के बाद ये आसानी से कानून के शिकंजे से बाहर आ जाते हैं । समझ में नहीं आता कि समाजवाद की बात करने वाले वामपंथियों एवं समाजवादयों को समाज का यह बदलाव नजर क्यों नहीं आ रहा है । कोई बता सकता है कि भला इन गरीबों का दोष क्या है ? उत्तर ढूँढने से भी न मिलेगा क्योंकि पूँजी का वर्चस्व न्याय और सत्ता के ऊपर किस प्रकार अपना सिक्का जमाये बैठा है यह आज का आम आदमी आसानी से देख पा रहा है । शायद इसलिए आज का युवा भौतिकवादी दौड़ में दौड़कर ज्यादा से ज्यादा धनार्जन कर अपने आप को सुरक्षित करने के कवायद में जुटा पड़ा है ।

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