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Monday, January 12, 2009


अथ श्री पॉपकार्न कथा

पॉपकार्न....... सुनते ही लगता है कि कोई विदेशी नाम है । खैर चलिए जानते हैं कि पॉपकार्न क्या है ? जब मैंने अपना कॉमन सेन्स इस पर अप्लाई किया तो लगा कि पॉप का मतलब विदेशी नाच और कार्न का मतलब अनाज । कुल मिलाकर यही कि नाचता हुआ अनाज । पॉपकार्न से मेरा पहला परिचय पटना के हार्डिंग पार्क में हुआ । तब मैंने यूँ ही इसे मकई का लावा समझा था । दूसरा परिचय दिल्ली में हुआ ,जब विशाल सिनेप्लेक्स में सिनेमा देख रहा था । 36 रूपये दे कर मैंने पॉपकार्न मँगवाया । देखते ही मैने पूछा यह लावा 36 रूपये का है । बैरे ने कहा -" साहब लावा नहीं पॉपकार्न कहिए "। देखने में तो यह लावा ही लगा ,सोचा चखकर भी देख लिया जाए । चखने के बाद सारी स्थिति स्पष्ट थी ,यह मकई के लावा का भूमंडलीकृत रूप था । मुझे अपने बेवकूफ बनने पर आश्चर्य हो रहा था तो दूसरी तरफ संतोष भी । यह तो पुराना फंडा है जिसे अपनाकर अंग्रेजों ने हमारे संसाधनों का भरपूर दोहन किया करते थे । अंग्रेज भी कपास यहाँ से ले जाते थे और अपने यहाँ कपड़ा बनाकर पुनः उसे भारतीय बाजार में अत्यधिक कीमत पर बेचते थे । आज के परिदृश्य में भी कोई खास परिवर्तन देखने को नहीं मिलता है ,स्थितियाँ भी कमोबेश वही है । आज की मल्टीनेशनल कंपनियाँ भी अंग्रजों के पुराने ढ़र्रे पर है । देशी उत्पादों पर अपना लेबल चढ़ाकर मनमानी कीमत वसूलना तो कोई इनसे सीखे । देशी उत्पादों को परिनिष्ठित कर कंपनी द्वारा अपना नाम दे देना –ब्राडिंग कहलाता है ।
शायद इसलिए लोग" दाल-भात" को छोड़कर "फ्रॉ राइस" सेवई छोड़कर नूडल्स की ओर ,मकई के लावा को छोड़कर पॉपकार्न की ओर भाग रहे हैं । जैसी नीतियाँ ईस्ट इंडिया कंपनी की थी वैसी ही नीतियाँ इन कंपनियों की भी है । क्या बिना ब्रांडिंग के रिलायंस इतनी ऊँचाई को छू सकता था ?
आर्थिक रूप से भारत मुख्यतः दो तबकों मे बंटा हुआ है – एक किफायत की ओर और दूसरा ब्रांड की ओर । श्री लाल शुक्ल ने अपनी रचना राग दरबारी में हिन्दुस्तानियों के लिए एक परिभाषा दी है कि –" जहाँ दो पैसे की किफायत हो, हर हिन्दुस्तानी उधर ही मुँह मारता है "। मुझे यह परिभाषा आज तथा पूर्व के परिदृश्य दोनों ही दृष्टि से अधूरा लगा । शुक्ल जी की परिभाषा तथाकथित मध्य तथा निम्नवर्गीय हिन्दुस्तानी के लिए है ,जो कमोबेश ब्रांड के पीछे भाग रहा है । आपको पीछे के उच्चवर्गीय समाज का उदाहरण देना चाहूँगा जो यह साबित करने में सक्षम होगा कि लोग उस समय भी ब्रांड के कायल थे । आपने आनंद भवन का नाम सुना है ? आनंद भवन प्रथम प्रधानमंत्री का पैतृक आवास । इस भवन में लगे सजावटी सामानों को यूरोपीय देशों से आयात किया गया था । इतना ही नहीं इसके आर्चिटेक्चर भी विदेश से मँगवाये गये थे । जब यह इमारत बनी तो उस समय यह भारतीय इमारतों में नायाब था । मतलब साफ है ब्रांडिंग का क्रेज आज भी है ,कल भी था । कल का ब्रांड केवल ऊँचे तबके को ही अपना निशाना बनाता था जबकि आज का ब्रांड मध्यवर्ग और गरीबों में भी सेंध लगा रहा है । ब्रांड कहें तो देशी उत्पादों का भूमंडलीकृत रुप । आज जब भी ब्रांड का नाम सुनता हूँ तो उस बैरे की आवाज बड़ा कचोटती है -"लावा नहीं पॉपकार्न कहिए "।

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