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Wednesday, December 17, 2008

आत्म कथा
निकले थे इंजीनियर बनने , पर बन निकले पत्रकार । वैसे इंजीनियरींग प्रवेश परीक्षा में भी कुछ सफलताओं को छोड़कर कोई बड़ी सफलती न मिल पाई। खैर आ गया डीयू में। हमारे जैसे ज्यादातर छात्र fructuating ही होते हैं । वैसे भी डीयू में ज्यादातर छात्र u.p और bihar से होते हैं। इनका एक विशेष लक्षण होता है ,ये गिरमिटिया होते हैं । मतलब जिस क्षेत्र में डाल दीजिए देर सबेर अपने आप को स्थापित कर ही लेते हैं। लग जाएँ ता छोड़ना नहीं ,जैसे फेवीकाल का प्रचार "लगे रहो,छोड़ना नहीं "। कुछ ऐसी ही परिस्थिति मेरे और मेरे वरिष्ठ साथियों के साथ भी है,लेकिन डीयू है कि "ऊँची दुकान,फीकी पकवान" की कहावत को चरितार्थ करने में कोई कसर नहीं छोड़ता ।डीयू का अपना ही एक राग –अलाप है । जिसे नीचे की कविता के माध्यम से सामने लाना चाहूँगा । वैसे तो मैंने यह कविता नवीं कक्षा में ही पढ़ा था। यह भी मालूम नहीं कि इसके कवि कौन हैं। फिर भी मुझे लगता है कि यह कविता पूरी ईमानदारी के साथ डीयू के परिवेश के साथ तादात्म्य स्थापित करता है --------------
सतपुड़ा के जंगल
नींद में सोये हुए से
ऊँघते अनमने जंगल
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इन वनों के खूब भीतर
चार मुर्गे,चार तीतर
पाल कर निश्चिंत बैठे
विज़न वन के ये पैठे
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दल सको तो दलों इनको
धँस सको तो धँसो इसमें
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जबकि होली पास आती
मत्त करती बास आती
बज उठते ढ़ोल इनके
गीत इनके,बोल इनके
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कविता में प्रयुक्त शब्दों का सीधा संबंध इन शब्दों से है--------
सतपुड़ा---दिल्ली विश्वविद्यालय। जंगल---- डीयू के कॉलेज।
मुर्गे और तीतर--- छात्र-छात्राएँ । पैठे ---- डीय् के शिक्षक।
होली---- छात्र संघ(डूसू) चुनाव ।

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