आरक्षण पर बवाल क्यों
आज के परिवेश में जहाँ भारत भूमंडलीकरण सस्कृंति में रंगा जा रहा जा रहा है,वहाँ आरक्षण आवश्य़कता है या विवशता । इस पर गौर करने से पहले हमें य़ह देखना चाहिए ‘आरक्षित कौन हैं”?, पिछड़े या सवर्ण । हास्यास्पद यह भी लगता है कि सूद्रों के आरक्षण की वकालत करने वाले नेताओं को भी पता नहीं,“आरक्षित कौन हैं”?भला बीस सदियों से आरक्षित रहने वाले सूद्रों को आरक्षण देने का विरोध न करें तो क्या करें ।आरक्षण का शुरूआत आर्य काल में हुआ।मंत्री के पद पर ब्राह्मणों का,राजा के पद पर राजपूतों का, धन के काम पर बनियों का,मुशींगीरी के लिए कायस्थों का आरक्षण ऱहा।सर्वोपरि स्थान ब्राह्मणों का बना और ब्राह्मण लोग ही सारे कानून बनाने वाले थे।नतीजा यह हुआ कि ब्राह्मण लोग
सबसे अधिक योग्य हो गए।बाकी के लोग कुठिंत होकर अयोग्य होते चले गए।यह बात माने या न माने कि ब्राह्मणों के लिए हजारों सालों का आरक्षण था सो उनकी योग्यता बढ़ी।तभी तो आज जब भी पिछड़ों को आरक्षण देने की बात आती है तो द्विजों द्वारा विरोध शुरु हो जाता है और सफल रहता है।पहले से आरक्षित होने के कारण पदों,प्रतिष्ठानों और संस्थानों में उनका वर्चस्व है।विरोध अगर सर्वप्रथम आई आई टी और एम्स से शुरू होता है,तो इसका सीधा मतलब निकलता है कि वहाँ भी द्विजों की भागीदारी सबसे ज्यादा है।अब तक हुए प्रधानमंत्रियों में सबसे ज्यादा ब्राह्मण अथवा कायस्थ हुए हैं।
किसी भी कीमत पर जब तक सूद्रों की भागीदारी नही बढ़ायी जाती तब तक वे सही रुप में मुख्यधारा में शामिल नहीं हो सकते ।कभी-कभी लोग पिछड़ेपन और गरीबी को आरक्षण से जोड़कर देखते हैं। गरीबी एक बात है,पिछड़ापन दूसरी बात है।दोनो में फर्क बतलाने लिए यह उदाहरण काफी है –
एक गरीब सवर्ण है,दूसरा उतना ही गरीब मुसहर या भंगी है।दोनो को कहीं से दस-दस हजार रूपये मिलते हैं।क्या दोनो की तरक्की एक जैसी होगी ?नहीं। सवर्ण कहीं जाकर एक छोटा होटल खोल सकता है –उससे मुनाफा हो सकता है।मुसहर या भंगी किसी छोटे कस्बे या छोटे शहर में यह काम नहीं कर सकता,उसकी दुकान में कोई खानेवाला नहीं जाएगा ।तो उसके दस हजार का मूल्य सवर्ण के दस हजार से बहुत कम है।यही फर्क है पिछड़े और गरीब में।
आरक्षण का संबंध पिछड़ेपन से है, पिछड़ेपन का एक लक्षण गरीबी है।पिछड़े केवल गरीब नहीं हैं,उनकी गरीबी का बड़ा कारण सामाजिक गैरबराबरी है,जबकि सवर्णों की गरीबी का एकमात्र कारण आर्थिक गैरबराबरी है।
अत: आरक्षण पिछड़ेपन को दूर करने का ही तरीका है।जिनको पद से वंचित रखकर अयोग्य बनाया गया,जरुरत उन्हें पद पर बिठाकर योग्य बनाने का।गरीबी उतना ही कष्टकारक है,जितना कि पिछड़ापन,लेकिन दोनों का हल अलग-अलग है।
आज आरक्षण एक बड़ा मुद्दा बन बैठा है।इस पर तमाम तरह के ब्यूरोक्रेटों एवं डेमोक्रेटों के विचार पक्ष अथवा विपक्ष में आए हैं।सारे व्यवधानों के बावजूद न्यायपालिका ने अपना निर्णय आरक्षण पर दे दिया।निर्णय में शिक्षा और नौकरी में ओबीसी आरक्षण को दूसरी श्रेणी का बताया गया,यह तो समझ आ गया परंतु क्रीमीलेयर की जो परिभाषा दी,वह समझ से परे है।क्रीमीलेयर की सीमाएँ न्यायपालिका द्वारा निर्धारित की गई,वह केवल आर्थिक आधार पर आधारित है।जबकि इसे ओबीसी के भीतर विभिन्न जाति तथा लोगों के संपन्नता के आधार पर देखना चाहिए।देखा जाए तो हाय़र एजुकेशन के अवसरों का लाभ केवल क्रीमीलेयर ही उठा पाता है,जो कि सुप्रिम कोर्ट के द्वारा परिभाषित है।आई आई टी ,एम्स अथवा आई आई एम में कोई खेतिहर किसान का बच्चा तो नहीं जाएगा।अगर किसी मध्यवर्गीय परिवार का बच्चा वहाँ पहुँचेगा तो उसे क्रीमीलेकर कहकर बाहर निकाल दिया जाएगा।इस तरह की बंदिश से एक और बात सामने आई कि ऐसे में ओबीसी की सीटें खाली रह जायेंगी ।उसका क्या होगा?क्या बचे हुए सीटों को सामान्य श्रेणी से भर दिया जाएगा?इस प्रश्न का भी अच्छा उत्तर सुप्रिम कोर्ट ने बचे हुए सीटों को सामान्य श्रेणी से भरने का आदेश देकर दे दिया।इस तरह सुप्रिम कोर्ट ने जो एक हाथ से दिया,दूसरे हाथ से वापस ले लिया।
जहाँ एक ओर आर्थिक मंदी के कारण नौकरियां का अकाल पड़ रहा है,वहाँ अपेक्षाकृत कम कुशल अथवा योग्य बच्चों को आरक्षण के बदौलत नौकरी या शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश देना उचित होगा?निश्चय ही यह सरकार के लिए गले का फाँस था सो इसका पटाक्षेप अप्रत्त्यक्ष रूप से न्यायपालिका द्वारा करवा दिया ।आज भी सत्ता और अफसरशाही में उचित भागीदारी न होने कारण बात दूर तक न जा पाई।बात "पुर्नमूषको भव" की तरह वहीं की वहीं रह गई।अंत में आरक्षण विरोधी पैरोकारों को स्वामी विवेकानन्द की भविष्यवाणी याद दिलाना चाहूँगा, "आनेवाला भारत सूद्रों का होगा"।
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