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Sunday, May 9, 2010

वर्तमान शिक्षा प्रणाली की त्रासदी ..


                     ART EXPLORES THE WORLD OF SCIENCE

यह छोटा सा वाक्य हो सकता है आपको अचंभित कर दे,परंतु यह सत्य है । वैसे भी कहा जाता है कि जहाँ से विज्ञाण की सीमा खत्म होती है,वहाँ से आध्यात्म की दुनिया आरँभ होती है। विज्ञान की कोख से कला का जन्म कतई संभव नहीं। कला के पास विज्ञान की अपेक्षा कई गुणा ज्यादा वैज्ञानिक दृष्टिकोण होती है। ऐसे में स्नातक स्तर पर गणित को अनिवार्य करने की कवायद एक कुंठित विचारधारा की परिणति है । इस विषय पर बहस पूरी शिक्षा नीति पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है। वस्तुतः हमारी वर्तमान शिक्षा पद्धति का आधार मैकाले की शिक्षा नीति है। इसी शिक्षा नीति में सुधार कर 1962 में कोठारी कमीशन ने अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसके बाद इसमें संशोधन कर 1986 में नई शिक्षा नीति देश में लागू हुआ। इसके बाद अबतक कोई माकूल शिक्षा नीति नहीं बनाई गई है जो वास्तविक रूप में छात्रों के लिए उपयोगी हो।
                            गणित की अनिवार्यता के पीछे सीधा सा एक तर्क दिया जाता है कि छात्रों के आई क्यू में इससे बढ़ोतरी होगी । यह बात ठीक वैसे ही है जैसे कि एक विख्यात गणितज्ञ को भिंडी को पसंद था । इससे लोगों ने कहना शुरू कर दिया कि भिंडी खाने से गणित तेज होता है। क्या हम बता सकेंगें कि लियोनार्डो डा विंची , पिकासो , गुरू रविन्द्र ,प्रेमचंद सरीखे लोगों का आई क्यू कमजोर था । इन्हें गणित में रूचि नहीं थी ,फिर भी ये लोग समाज और जीवन की जटिलता को समझते हुए कालजयी कृतियों की रचना की। प्रेमचंद कई बार गणित के कारण माध्यमिक परीक्षा में असफल हुए , पिकासो और गुरु रविंद्र कभी स्कूली शिक्षा नहीं ग्रहण की । ज्यामीति का आविष्कार करने वाले स्वयं यूक्लिड को ज्यामीति के अलावा अन्य विषयों की जानकारी नहीं थी। यह कहना बेमानी होगा कि केवल गणित ही आई क्यू बढ़ा सकता है । वस्तुतः विषय चयन का अधिकार छात्रों के पास होनी चाहिए । अपनी रूचि के मुताबिक विषय चयन छात्रों का बुनियादी अधिकार होना चाहिए । विषय चयन की छूट छात्रों को माध्यमिक स्तर से ही होनी चाहिए । शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है , किसी प्रकार की बाध्यता इसमें खलल डालने का कार्य करेगी । ऐसा करना बेबुनियाद भी है क्योंकि  मौजूदा शिक्षा प्रणाली में उच्च माध्यमिक स्तर पर कला,वाणिज्य एवं विज्ञान संकाय अलग हो जाते हैं। सभी व्यक्ति किसी न किसी विषय में पारंगत होते हैं । उनकी रुचि के अनुसार विषय चयन के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए । ज़रा सोचिए न्यूटन यदि इतिहास पढ़ते तो क्या होता । रमानुजन यदि कला की पढाई करते तो क्या आज रमानुजन ,रमानुजन होते । कतई नहीं। किसी भी विषय को अनिवार्य करने वाली शिक्षा प्रणाली, “JACK OF ALL MASTER OF NONE”, जैसे कहावत को चरितार्थ करने वाली है ।
                          विज्ञान संकाय में गणित , रसायण एवं भौतिकी विषयों की अनिवार्यता छात्रों को सफलता से दूर कर रही है । शायद यही वजह है कि विश्व के सर्वोच्च तकनीकी संस्थानों में शुमार भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान(आई. आई. टी) के छात्र भी नासा के प्रतिष्ठित परीक्षा में अपनी माकूल उपस्थिति नहीं दर्ज करवा पा रहें हैं ।72 सीटों के लिए हुए परीक्षा में मात्र 6 छात्र भारत से चयनित हुए हैं , जबकि यूरोप के 64 ऐसे छात्र चयनित हुए हैं जो केवल विज्ञान में स्नातक थे। दूसरा उदाहरण NASSOCOM की रिपोर्ट का है ,जिसके अनुसार 4000 आई.आई. टी छात्रों में से केवल 800 छात्र ऐसे होते हैं जिन्हें अभियंता कहा जा सके। कोचिंग संस्थानों के प्रलोभन और अभिभावक के दबाव में आकर छात्र यहां प्रवेश तो पा लेते हैं,लेकिन रूचि न होने से बेहतर प्रदर्शन नहीं कर पाते । कम से कम इस उदाहरण से शिक्षाविदों को सीख लेनी चाहिए । ऐसी शिक्षा का कोई उद्देश्य नहीं होता ,जिस शिक्षा से हम जीवन निर्माण कर सकें ,मनुष्य बन सकें ,चरित्रगठन कर सकें और विचारों में सामंजस्य स्थापित कर सकें वास्तव में वही शिक्षा , शिक्षा कहलाने योग्य है। यदि आप केवल पांच वाक्यों को पढ़कर उसे अपने जीवन में उपयोग करते हैं तो आपकी शिक्षा उस व्यक्ति से कहीं ज्यादा बेहतर है जिसने एक पूरी लाईब्रेरी कंठस्थ कर ली है ।   



1 comment:

Anonymous said...

very true perception
happy and contented to read a paragraph which i always wanted to convey my parents