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Friday, December 4, 2009

विज्ञानं के दृस्ती में प्रेम


प्रेम सृष्टि की निश्छल एंव स्वच्छ अभिव्यक्ति है । अब तक हम प्रेम के विभिन्न रुपों को देखते आए हैं । प्रेम इस सृष्टि के सभी पिंडो को एक दूसरे से जोड़ने का कार्य करता है । इस संसार के समस्त प्राकृतिक संसाधनों में जो सामंजस्य है, वह प्रेम के कारण ही फलीभूत हो सका है । चूँकि हम मानव हैं इसलिए हम इसकी अभिव्यक्ति को सिर्फ मानवीय संदर्भों तक ही सीमित कर देते हैं । इस भौतिक दौर में हम इतना व्यस्त हो चुके हैं कि हमने प्रेम करने के लिए निश्चित दिन का निर्धारण कर लिया है । संत वेलेंटाइन के प्रेम का व्यापक असर पूरे विश्व में देखा जा सकता है । आज हम भी उसे ढ़र्रे पर हैं । जिस अर्थ तक वेलेंटाइन को बांध देते हैं, वस्तुतः वेलेंटाइन का अर्थ सिर्फ वहीं तक सीमित नही है । वेलेंटाइन के प्रेम का जो अर्थ पश्चिम में हैं, वह हमारे यहां नही है । नासमझी की वजह से हमने प्रेम को और अधिक जटिल बना दिया है । संत वेलेंटाइन का प्रेम से संबंध सिर्फ मानवीय ही नही अपितु व्यापक संदर्भ में था । वह सृष्टि के सभी चल अचल प्राणी से प्रेम करते थे । प्रेम को अच्छे ढ़ंग से समझने में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अधिक प्रभावी ढ़ंग से हमारी मदद करता हैं । चाहे वह डार्विन के विकासवाद का सिद्धांत हो, या आंइस्टीन के सापेक्षवाद का सिद्धांत, ये वैज्ञानिक सिद्धांत भी तो प्रेम को ही परिभाषित करते हैं । आंइस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत को विज्ञान के साथ-साथ आध्यात्म और धर्म भी परिभाषित करता है । सापेक्षवाद का सिद्धांत प्रेम को आसानी से समझा सकता है । आप सापेक्षवाद समझ लो तो प्रेम अपने आप समझ में आ जायेगा । सृष्टि को प्रेम के आधार पर दो भागो में बांटा है । यह दोनो भाग आपस में मिलकर गोला बनाते हैं । गोलाई का निर्माण संपूर्णता का प्रतिक है । प्रत्येक प्रजाति का विभाजन अर्दगोले की तरह किया है, ताकि इनके प्रेम अथवा सम्मिलन से गोलाई का निर्माण किया जा सके । इनमें आकर्षण पैदा करने के लिए इनके मानसिक स्तर का निर्माण चुंबक के दोनो ध्रुवो की तरह किया गया है । ताकि सान्निध्य पाते ही दोनो विपरीत ध्रुव मिल जाए । सृष्टि का प्रत्येक पिंड दूसरे पिंड को अपनी ओर आकर्षित कर रहा है । यह भौतिक विज्ञान द्वारा साबित तथ्य है । यही सापेक्षता है । प्रेम को व्यापक संदर्भों से अलग अगर हम इसे मानवीय संदर्भों में भी देखे तो इसमें वैज्ञानिकता मौजूद है । प्रेम एक तरह से एक दूसरे की भावनाओं को समझने की प्रक्रिया है । जब कोई दो पिंड एक दूसरे के संपर्क में आते हैं, तो बहुत सारे आकर्षण बल सक्रिये हो जाते हैं । इसे इस प्रकार समझा जा सकता है – आपने दो मुक्केबाजों को लड़ते हुए देखा होगा । मुक्केबाज एक दूसरे की आँख में आँख डालकर लड़ाई करते हैं । आँख में आँख डालने से वे एक दूसरे की प्रहार क्षमता का आकलन कर लेते हैं । आई कान्टेक्ट की मदद से वे एक दूसरे की आगामी चालों को जान पाते हैं । यह भी आकर्षण पैदा करने की एक प्रक्रिया है जो एक मुक्केबाज को दूसरे से जोड़ने का कार्य करती है । जब दो व्यक्ति आपस में वार्तालाप कर रहें होते हैं तो बॉडी लैंग्वेंज, भोकल एक्स्प्रेसन,आई कान्टेक्ट,मैगनेटिक इन्टेंसिंटी आँफ ब्रेन जैसे आकर्षण के कारक कार्य कर रहे होते हैं । इन सभी कारकों में आकर्षण पैदा करने के लिए दो कारक महत्वपूर्ण हैं- आई कान्टेक्ट और मैगनेटिक इन्टेंसिंटी आँफ ब्रेन । वस्तुतः ये दोनों कारक आपस में परस्पर सहयोगी की भूमिका निभाते हैं । आई कान्टेक्ट होने से दो व्यक्तियों के मस्तिष्क के मध्य चुंबकीय क्षेत्र सक्रिय हो जाता है । चुंबकीय प्रभाव के कारण मस्तिष्कों के बीच तरंगद्धैर्य उत्पन्न होने लगते हैं । इन तरंगद्धैर्यों के संपर्क में आने के कारण दूसरे व्यक्तिको क्या कहना चाह रहा है, यह जान पाता है । मानवीय अर्थों में प्रेम मनुष्य जीवन के विभिन्न चक्रों के साथ परिवर्तित होता रहता है । वैसे प्रेम उत्पन्न होने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कारक भी उत्तरदायी होता है । मातृत्व और शैशव प्रेम ईश्वर की अनमोल कृति है । इसे हम प्राकृतिक और आध्यात्मिक प्रेम की श्रेणी में भी रख सकते हैं । आजकल जो प्रेम दूनिया भर में चर्चित है हम इसे तीन भागों में बांटकर इसके पीछे की वैज्ञानिकता को परलक्षित कर सकते हैः-
(1.)- प्यार या लिप्सा –
यह ठीक उसी प्रकार का आकर्षण है जैसा कि हम फिल्मों में देखते हैं । यह मुख्य तौर पर शारिरिक आकर्षण का एक प्रकार है । यह आमतौर पर टीन एज़ के शुरुआती दौर में होता है । इस प्रकार का प्रेम आपके मस्तिष्क द्वारा संचालित होता है । जब आप इस तरह के रिश्ते में होते हैं तो आपको आपका प्रेमी बेहतरीन लगने लगता है । ऐसे समय में एन्ड्रोफिन नामक हार्मोन आपके मस्तिष्क पर छा जाता है, जिससे आपको आपका विपरीत लिंगी आकर्षक लगने लगता है ।
(2.)- आकर्षण –
यह टीन एज़ के मध्य में अक्सर होता है । यह मुख्यतौर पर यौवनारंभ ( प्यूबर्टी ) के साथ शुरु होता है । ऐसे समय में आपके शारिरिक ढ़ांचे में परिवर्तन होने लगता है, मसलन स्तनों का विकाश, बालों का आना इत्यादि । आप जब इस समय में किसी रिश्ते में होते हैं, तो आपको न कुछ खाने का मन करता है और न पीने का । आप हरवक्त अपने पार्टनर के ख्यालों में डूबे रहते हैं । इसका कारण आपके शरीर में डोपामाइन, नोरपाइनफ्रिन और सिरोटोनिन जैसे हार्मोनों का स्त्राव है । इस प्रकार के रिश्ते में आप अपने पार्टनर को आइडियल मानने लगते हैं । नतीजतन वैचारिक मतभेद शुरु हो जाता है । इस वैचारिक मतभेद को इनफैचुएशन कहा जाता है । इनफैचुएशन के कारण रिश्ते अक्सर टूट जाया करते हैं ।
(3.)- भावनात्मक स्वीकृति –
यह आकर्षण की परिपक्व अवस्था है । इस अवस्था में आमतौर पर शारिरिक आकर्षण आप पर हावी नही होता । इस समय आपके सामने आपके पार्टनर का नकारात्मक एंव सकारात्मक पक्ष दोनों सामने होता है । इन दोनों पक्षों को दरकिनार करते हुए आप साथ निभाने को उतावले होते हैं । आपसी गलतफहमियों के बावजूद जिन्दगी साथ बितायी जाती है । इस प्रकार का प्रेम सनातनीय अथवा परंपरा से चले आ रहें भारतीय परिवारों में दृष्टिगोचर होता है ।
उपरोक्त प्रकार के प्रेम भौतिक सृष्टि की देन है । इसके अलवा भी दो प्रकार का प्रेम होता है जिसे आप आध्यात्मिक प्रेम की संज्ञा दे सकते हैं ।
(1.)- चैतन्य –
इस प्रकार के प्रेम संबंध में समय सीमा नही होता । आप इसे एकतरफा प्रेम भी कह सकते हैं । ऐसी अवस्था में आपके आदर्श ही आपके प्रेमी हो जाते हैं । कृष्ण और मीरा का प्रेम चैतन्य प्रेम का ही एक उदाहरण है ।
(2.)- वैराग्य –
जब आपका प्रेम आत्मकेंद्रित हो जाता है तो ऐसी अवस्था वैराग्य की अवस्था होती है । इसमें व्यक्ति सांसारिक पदार्थों से प्रेम छोड़, आत्मा से प्रेम करने लगता है । आत्मा और परमात्मा का गहरा रिश्ता होता है । इसलिए ऐसा व्यक्ति जल्द ही ईश्वरत्व को पा लेता है ।

3 comments:

Unknown said...

achhi prastuti

Arshia Ali said...

सटीक विश्लेषण।
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अदभुत है मानव शरीर।
गोमुख नहीं रहेगा, तो गंगा कहाँ बचेगी ?

Arvind Mishra said...

अच्छा लिखा आपने !यह तो केमिकल लोचा ही है ! जरा शब्दों की साईज छोटी रखें !