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Thursday, October 1, 2009

सियासत पर हावी धन !!!!!!!


जब –जब ब्यूरोक्रेसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर अपना वर्चस्व बनाती है तब–तब शशि थरुर के जैसे बयान लोगो को सुनने पड़ते हैं । भारत की 95 प्रतिशत जनता या तो निम्न मध्यवर्गीय अथवा निम्नवर्गीय परिवार से ताल्लुक रखते हैं । थरुर को यह पता होना चाहिए कि आज वे जिस पद की गरिमा बढ़ा रहे हैं ,वह पद इनहीं 95 प्रतिशत लोगों ने उन्हें दिया है । इस 95 प्रतिशत आबादी को थरुर भेड़ के बाड़े की जगह क्या कहेंगें ?क्योंकि इन्हें तो दूसरे दर्जे की रेल में यात्रा करना पड़ता है, जिसे अनमने ढ़ंग से ट्रेन के पिछले हिस्से में जोड़ दिया जाता है । लोकतंत्र में लोकतंत्र के कथित मालिकों का इस प्रकार से मखैल उड़ाना ठीक बात नहीं है । लोकतांत्रिक प्रक्रिया में इस प्रकार का बयान देना निराशाजनक है । कुछ माह पूर्व ही अमेरिकी राजनयिक डेविड हूलब्रूक ने भारतीय नेताओं को हे़डलेस चिकन कहा था । इस टिप्पणी पर बड़ा विवाद हुआ था और हूलब्रूक को माफी मांगना पड़ा था । हूलब्रूक और थरूर के बयान में समानता दिखता है । दोनों के बयानों को वस्तुत:हम जिस संदर्भ में ले रहे हैं ,वह उस संदर्भ में नहीं है । दोनों के बयान को अगर हम राजनीति से परे होकर देखें तो एक ब्यूरोक्रेट के हैसियत से दोनों ही सही हैं। थरूर के पूरे बयान का इशारा कांग्रेसनीत सरकार द्वारा खर्च की कटौती को लेकर की जा रही नौंटंकी से है । हाल ही में शशि थरूर और एस एम कृष्णा को वित्त मंत्री ने पांच सितारा होटल को खाली कर सरकारी आवास में जाने की अपील की थी । उनका उद्देश्य इससे सरकारी खर्च में कटौती से था । दूसरी तरफ यह बात भी गौर करने लायक है कि दोनों मंत्री अपने निजी खर्चे से होटल में रह रहे थे । फिर भी राजनीति और मंत्रियों की खुद की सेहत के हिसाब से यह अच्छा नहीं है । राजनीति में संवेदना की खरीद बिक्री होती है , वास्विकता से राजनीति का कोई लेना देना नहीं है । ब्यूरोक्रेटों को आमतौर पर संवेदनाओं की खरीद बिक्री करना नहीं आता । शायद इसलिए मनमोहन सिंह ने इस घटना को ज्यादा तावज्जो नहीं दी और न कोई बयान दिया । लेकिन फिर भी सवाल उठता है कि राजनीति में आने के बाद इस प्रकार के विवाद को जन्म देना सही होगा । शशि थरूर और एस एम कृष्णा को उड़ीशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ले सीख लेना चाहिए । विदेश पढ़ने और पब कल्चर में विश्वास रखने वाले नवीन ने राजनीति में आने के बाद अपना स्वरूप बदला और एक जननेता की छवि बनाई ,और आज एक सफल जननेता के तौर पर जाने जाते हैं । बात फिजूलखर्ची की हो रही है पर वास्तव में आज के दौर में राजनीति मुनाफे का व्यवसाय बन गया है ,जिसमें मासिक वेतन तो है ही ,ढ़ेरों भत्ते पर करोड़ो रूपये खर्च किए जाते हैं । एक अनुमान के अनुसार देश के चुने हुए 534 सासंदों के ऊपर होने वाला खर्च 855 करोड़ रूपये से भी अधिक है । अगर मंत्रियो पर होनेवाले खर्च की बात की जाए तो यह कई गुना बढ़ जाएगा । भूमंडलीकरण के इस दौर में राजनीति ने भी अपना स्वरूप बदला है । वर्तमान में राजनीति जनाधार से हटकर इकोनोमी को अपना आधार बना बैठी है । नेता पैसे की बदौलत संसद में पहुंच रहे हैं । जाहिर सी बात यहां भी मार्केट का कान्सेप्ट ही कार्य करेगा । अर्थ के बदले गुणात्मक श्रेणी में अर्थ का दोहन बाजार का मूलमंत्र होता है ,वहीं इन नेताओं के द्वारा भी किया जा रहा है । आज ऐयासी के साथ जीना आम लोगों का मूलमंत्र बन चुका है । समाज ने ऐयासी के साथ जीने को ही अपना राष्ट्रीय लक्ष्य बना लिया है, ऐसी स्थिति में बचत, किफायत ,कमखर्ची वगैरह की बात करना बेमानी है । राजनीति अपने समाजसेवा जैसे मूलमंत्र से भटकते हुए राजनीति के अपराधीकरण तक का सफर तय किया और अब राजनीति का इकोनोमीकरण हो रहा है। डा. लोहिया कहा करते थे अगर चुनाव पैसे से लड़ोगे तो पैसा तुम पर हावी हो जाएगा। आज हो भी यही रहा है , राजनीति पर उद्योगपति हावी हो रहे हैं । सवाल बचत का नहीं बल्कि मानसिकता का है । पैसे को लेकर इस लोकतंत्र के अंतिम व्यक्ति से लेकर वरिष्ठ व्यक्ति तक किसी की नीयत पर विश्वास नहीं किया जा सकता । अगर पैसे से सबल लोग राजनीति में आ रहें तो फिर उन्हें सरकारी खर्चे की क्यों जरुरत पड़ती है । इस बाबत कोई जबाव देने वाला नहीं ।

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